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खोई हुई हँसी

  • anasuyaray
  • Jun 7
  • 1 min read

बहुत ज़ोर से हँसती हो, बाप रे

ऐसा कहाँ ससुराल में...

पहली बार जब बहू बन के आई थी वो।

अचानक से चुप हो गई थी उस दिन।

शादी से पहले कई बार उस घर में जा चुकी थी।

तब किसी ने बताया था कि ज़ोर से मत बोलो,

नरम आवाज़ में बोलो —

हमारे घर में ऊँची आवाज़ में कोई नहीं बोलता।

हँसी के बारे में तो किसी ने कुछ नहीं बोला।


कैफ़ेटेरिया में बैठी ही थी कि चंदना आके बोली:

"दूर से तुम्हारी हँसी सुनाई दे रही थी।

कितनी ज़ोर से हँसती हो, बाप रे!"

अचानक से चुप हो गई थी उस दिन।

धीरे-धीरे हँसना कम कर दिया था उसने।


सोचती थी — मधुबाला जैसे हँसूँगी,

आवाज़ न गूँज पाएगी, बस झलक सी खिल जाएगी।

जैसे ही हँसी आती, सोच-सोच में बात निकल ही जाती थी।

हँसने का मौका ही न मिल पाया फिर कभी।


फिर आदत-सी बन गई न हँसने की।

ख़ुद की हँसी की ठिठोली से भी डर लगता था उसे।

सुनाई न दिया था ख़ुद की आवाज़ जिसे।

भूल चुकी थी — कैसी होती थी वो गड़गड़ाहट।


फिर एक दिन एक भूला हुआ दोस्त मिला रास्ते में।

पूछा, "क्या कर रही है आजकल?

अभी भी है शैतान?

शैतानी करके पकड़ी जाती है क्या?

और फिर तेरी गरजती हुई हँसी ठिठोल कर बाहर निकलती है क्या?

और सबको अपनी लपेट में लेके बह जाती है क्या?"


उस दिन वो घर गई, दरवाज़ा बंद किया — और खूब रोई।

क्योंकि अब वो सच में हँसना भूल चुकी थी।

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